पानी नियंत्रण में नहीं, हवा में धोखा…प्रकृति के चक्र को समझने में गलती अब हमारे ही सामने 

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नई दिल्ली: एन पी न्यूज 24 – पारिस्थितिकी तंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जलचक्र है और हमने अपने विकास के तथाकथित महत्वाकांक्षाओं के चलते प्रकृति के इस चक्र पर चोट की। नतीजा,  आज पानी पूरी तरह से हमारे नियंत्रण से बाहर है। इसका सबसे बड़ा कारण पृथ्वी के तापक्रम में अप्रत्याशित बढ़ोतरी का होना है। पानी हमारे बीच से धीरे धीरे गायब होता चला गया।  देश का कोई भी हिस्सा हो, हमने जलचक्र में एक बहुत बड़ा असंतुलन पैदा कर दिया है जिसकी वापसी जल्द ही संभव नही है। मानसून उत्तर भारत में हिमखंडों से लेकर सब जगह वर्षा के माध्यम से नदियों, तालाबों, पोखरों व नालों तक पानी पंहुचाता है और इसके बेहतर संरक्षण का दायित्व प्रकृति ने वनों को दिया है, लेकिन हमने इनका दुरुपयोग किया, वह भी खालस अपने हित के लिए। अब खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है।

दरअसल, जल और वायु ही पृथ्वी पर जीवन तय करते हैं। ये जलवायु ही है जो पृथ्वी की सभी क्रियाओं को नियंत्रित करती है और एक पारिस्थितिकी चक्र की तरह व्यवहार करती है। दुर्भाग्य से हमसे प्रकृति के इस चक्र को ना समझने की गलती हुई है, उसी ने प्रकृति के सारे प्रबंधन को हमारे हाथ से बाहर कर दिया। जबसे जलवायु परिवर्तन व वैश्विक तापमान ने असर दिखाने शुरू किये जलचक्र पर इसका पहला और सीधा असर पड़ा और अपने ही देश में विभिन्न मौसमों के बदलते स्वभाव में ये साफ दिखाई देता है। बारिश के जलचक्र को जलवायु परिवर्तन ने गड़बड़ा दिया और अगर ऐसा ही लगातार होता रहा तो आने वाले समय में यह सब हम पर भारी पड़ने वाला है।

आज धरती का बुखार असामान्य है तो पसीने के रूप में बेमौसम की बारिश कब आ जाए नहीं पता। आसमान का भी मिजाज अलग काला, पीला हो रहा है। पानी खत्म हो रहा है। बची खुची बारिश को सहेजने को लेकर भी हम लापरवाह हैं। न कोई नीति है न ही किसी तरह की राजनीतिक सोच। धरती और पर्यावरण को बचाने की चिन्ता की रेंगती रफ्तार बहुत धीमी और दिखावटी है। हमारी आने वाली पीढ़ी पर्यावरण से ज्यादा अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रही है। ऐसे में बिगड़ते मौसम पर कौन, कब और कितनी चिन्ता करेगा? यहां तो हम आज की चिन्ता में अपनी आने वाली पीढ़ी के कल का सर्वनाश लगातार करते जा रहे हैं। जल स्रोत दम तोड़ रहे हैं लेकिन धरती के गर्भ में बचे पानी को भी गहरे ट्यूब वेल से कदम-कदम पर पानी निकालने की होड़ में पीछे नहीं है। बारिश के पानी को सहेजने खातिर कोई जरूरी कोशिशें भी नहीं हो रही है। पहाड़ गिट्टियों की तो नदियां रेत का जरियां बन जेब भरने का जुगाड़ गईं है। इनके अंधाधुंध दोहन से क्या मिला या प्रकृति ने क्या खोया इसकी चिन्ता या हिसाब की फिक्र किसी को नहीं है। सच तो यह है कि पर्यावरण खातिर जो भी कुछ हो रहा है वह कागजों में तो सुव्यवस्थित है लेकिन हकीकत में नदारद है।

साफ हवा नसीब नहीं : साफ हवा तक नसीब में नहीं रह गई है।  सब कुछ जानते हुए भी खराब हो चुके वायुमण्डल को लगातार खराब किए जा रहे हैं। अपनी खुद की भावी पीढ़ी के बारे में सोचने की न किसी को चिन्ता है और न कोई तैयार ही दिखता।

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